मुआवजा तक नहीं, राहत के नाम पर सिर्फ नसबंदी
शिमला,ब्यूरो रिपोर्ट
रिपोर्ट के अनुसार कुत्तों के आतंक बढ़ने के कई कारण दिए हैं। इनमें शहर में कुत्तों की नसबंदी अभियान के फेल होने को भी बड़ा कारण माना है। साल 2006 में शुरू हुआ यह अभियान 2011 में अचानक बंद हो गया।
काफी साल यह अभियान बंद रहा। नगर निगम के पास कुत्तों का सटीक आंकड़ा भी नहीं है। आज तक शहर में इनकी गणना नहीं हुई। शहर में कचरा प्रबंधन सही न होना, लोगों के नसबंदी अभियान में सहयोग की कमी, फीडिंग सेंटर चिह्नित न होना भी कुत्तों की संख्या बढ़ा रहा है। शहर में कुत्तों के काटने की सूचना देने के लिए कोई स्पेशल हेल्पलाइन सेवा तक नहीं है।शहर में लावारिस कुत्तों का आतंक चरम पर है। नगर निगम राहत दिलाना तो दूर, इनकी नसबंदी तक नहीं करवा पा रहा। निगम में कुत्तों की नसंबदी के लिए एक डॉक्टर तक नहीं है। एक महीने से डॉक्टरों के पद खाली हैं। निगम ने पशुपालन विभाग से छह डॉक्टर मांगें थे लेकिन विभाग ने डॉक्टर की तैनाती करना तो दूर, निगम में नियुक्त डॉक्टर एवं वीपीएचओ का भी तबादला कर दिया।
अब शहर में कुत्तों की नसबंदी तक नहीं हो रही। नगर निगम महापौर सुरेंद्र चौहान के अनुसार इस बारे में सरकार से बात की है। जल्द डॉक्टर की तैनाती की जाएगी।नगर निगम, जिला प्रशासन और सरकार राजधानी में बढ़ते कुत्तों-बंदरों के आतंक से जनता को राहत नहीं दिला पा रहे। हमले के बाद जब लोग शिकायत करते हैं तो नगर निगम और वन विभाग की टीमें सिर्फ नसबंदी के लिए कुत्तों-बंदरों को पकड़ती है। यदि पहले ही इनकी नसबंदी हो चुकी है तो इन्हें पकड़ा तक नहीं जाता। यदि कोई बंदर या कुत्ता बार-बार हमला कर रहा है तो उसे पकड़कर दस दिन निगरानी में रखते हैं। इसके बाद वापस उसी जगह छोड़ते हैं, जहां से इसे उठाया हो। इसके पीछे नगर निगम और वन विभाग नियमों का हवाला देते हैं। इन जानवरों के लिए बनाए नियम इतने सख्त हैं कि नसबंदी के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता। पहले वन विभाग बंदरों के काटने पर मुआवजा देता था। लेकिन अब सिर्फ निशुल्क टीके लगते हैं।
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