देवी-देवताओं में विश्वास की 372 साल पुरानी विरासत
कुल्लू,ब्यूरो रिपोर्ट
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू स्थित ढालपुर मैदान में देव महाकुंभ के लिए जिले भर से देवी-देवताओं ने कूच कर दिया है। कई देवता 200 किलोमीटर का सफर तय कर ढालपुर पहुंचेंगे। भले ही आधुनिकता के दौर में हर क्षेत्र में परिवर्तन आ गया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में 372 साल पुरानी देव परंपराओं का अटूट आस्था का निर्वहन होता है। ढालपुर में होने वाले देवी-देवताओं के महाकुंभ के प्रति लोगों में अटूट आस्था है और आज भी देव और मानस का यह भव्य देव मिलन पूरे विश्वभर में विख्यात है।
अठारह करड़ू की सौह ढालपुर में कुल्लू जिला के सैकड़ों देवी-देवता अपनी हाजिरी देवलुओं के साथ भगवान रघुनाथ के दरबार में भरते हैं। कई किलोमीटर सफर के बाद देवी-देवता आराध्य रघुनाथ के समक्ष देवविधि के अनुसार मिलन करते हैं। इतिहास के अनुसार 1650 में तत्कालीन राजा जगत सिंह ने कुल्लू दशहरे का आगाज किया था और उन्होंने अपना राजपाठ रघुनाथ के चरणों में समर्पित कर दिया था। खुद भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार के रूप में सेवा करने का संकल्प लिया। आज भी जगत सिंह के वंशज बखूबी इस रस्म को निभा रहे हैं। बताया जाता है कि भगवान रघुनाथ का आशीष लेने से राजा जगत सिंह का ब्रह्महत्या का दोष धुल गया था। भगवान रघुनाथ की प्रतिमा को सबसे पहले धार्मिक नगरी मणिकर्ण में रखा था। 1651 में रघुनाथ, सीता और हनुमान की मूर्तियों को अयोध्या से दामोदर दास लाकर राजा के आदेश के अनुसार धार्मिक तीर्थ स्थल मणिकर्ण में रखा गया था। ऐसी मान्यता है कि दशहरा का पहला आयोजन मणिकर्ण में आयोजित किया गया।वर्ष 1660 में तत्कालीन राजा जगत सिंह ने विधि विधान के अनुसार कुल्लू के सुल्तानपुर में रघुनाथ की नगरी में स्थापित किया और कुल्लू दशहरा का सफर भी आरंभ हुआ।
वर्ष 1971 में कुल्लू दशहरा में गोलीकांड हुआ था। इस दौरान दशहरा उत्सव में भगदड़ मच गई थी और श्यामा नाम के व्यक्ति की गोली की चपेट आने से मौत हुई थी। इसका लोकगीत आज भी गूंजता है। गोलीकांड के कारण 1972-73 में कुल्लू का दशहरा भी नहीं मनाया गया था। वर्ष 1978 में कुल्लू दशहरा तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह ने दोबारा मनाना शुरू किया। हर साल एक हफ्ते तक मनाए जाने वाले उत्सव में सैकड़ों देवी देवताओं के आने से भगवान रघुनाथ की नगरी स्वर्ग लोक में तब्दील हो जाती है। इसके लिए देव समाज एक माह पहले से ही तैयारी शुरू कर देता है। झारी, धड़छ, घंटी, शहनाई, ढोल-नगाड़े, करनाल व नरसिंगों की स्वरलहरियों से ढालपुर का नजारा देवमय हो जाता है। देशी-विदेशी पर्यटक भी इस शानदार व अलौकिक दृश्य को अपने कैमरे में कैद करते हैं। दशहरा में आने वाले सैकड़ों देवी देवताओं के मुख्य कारकून व देवलु दशहरा उत्सव के सात दिनों तक अस्थायी शिविरों में तपस्वियों की तरह जीवन यापन करेंगे। देवी देवताओं के कड़े नियमों से बंधे होने के कारण देवता के कारकून अस्थायी शिविरों से बाहर नहीं जा सकते और वह चाय व खाना भी बाहर नहीं खा सकते।
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